मंदिर के बगल में चखना, चखने में कबाब

मंदिर के बगल में चखना, चखने में कबाब



PT News ( देवरिया ): ये जो पुलिस बैरिकेडिंग दिख रही है, इसे लेकर गलतफहमी मत पालिए। ये बैरिकेडिंग बेवड़ों को रोकने के लिए नहीं बनी है। हाकिम को सुरक्षित राह देने के लिए पुलिस ने खड़ी की है। शाम के समय जब कचहरी से जज साहब लोग अपने घर के लिए निकलते हैं, तब यह बैरिकेड थोड़ा थोड़ा खिसकते हैं। यही वह वक्त भी होता है जब दारू मंडी अंगड़ाई लेती है। मयखाना नाला सज धज कर तैयार होता है। फिर न्याय मार्ग जिसे देवरिया कचहरी रोड बोलता है वह न्याय के हाकिमों से विदा ले दारू मंडी की चाकरी में जुट जाता है।


न्याय मार्ग की भी क्या किस्मत है। एक किनारे पर परलोक के हाकिम भगवान शिव का मंदिर है। दूसरे किनारे पर इह लोक की दारू लीला है। सूर्य के अस्ताचल होते  ही शिवमंदर में आरती की तैयारी शुरू होती है तो पांच कदम दूर ठेले पर कबाब को कोयला कुलबुला जाने के लिए धुआं दर धुआं छोड़ता है। मंदिर में आरती के साथ कर्पूर गौरम गूंजता है तो ठेले पर सुर्ख कोयले पर मांस भूनकर कबाब बन जाने को मचल उठता है। फिर धीरे धीरे मंदिर के घंटे घड़ियां की आवाज शांत होने लगती है और सज धज कर मयखाना नाला बार के रूप में धन्य को प्राप्त होता है। मदहोशी इस कदर छाती जाती है कि पता ही नहीं चलता कि ये जो नाला कलक्टर साहब की कलेक्ट्री की चहारदीवारी से सट कर जज साहब के दफ्तर की ओर निकलता है उसकी पैदाइश गंदगी ढोने के लिए हुई थी या दारू की अवैध मंडी सजाने के लिए।

मंडी भी ऐसी सजती है कि पुलिस के उजाड़े भी नहीं उजड़ पाती है। या, पुलिस उजाड़ना ही नहीं चाहती है, या चाहकर भी पुलिस न तो मयखाना नाले का कुछ भी बिगाड़ पाती है और न दारू की अवैध मंडी का बाल बांका कर पाती है। खैर आगे मयखाना नाले का अर्थ तंत्र और मंडी की खास मदहोशी पर विस्तार से बकलोलई करेंगे। पहले पुलिस की नूराकुश्ती और भक्तों की चुप्पी पर बात कर लेते हैं, क्यों। क्योंकि यहां सवाल उठता है कि नियम क्या है। कहां पर लागू होता है। नियम के पीछे की मंशा क्या है। कहीं मांस मंदिर के नाम पर हंगामा है तो यहां पर सन्नाटा क्यों है।

 दरअसल जब सोच बोझ बन जाती है और   समझ उसकी चेरी बन इठलाती है तो फिर बिन मौसम बरसात की तरह इतिहास और भूगोल को भिगोना-सुखाना सबसे आसान हो जाता है। यह दिखता ही नहीं है कि हाथी चिंघाड़ रहा है या हिनहिना रहा है। सुर संध्या में केवल संध्या दिखती है, भूल जाता है कि इवेंट सुर का था न कि संध्या का। पता नहीं किसने क्यों कहा - गये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। पुलिस के साथ यहां अक्सर यही होता है। असल में न तो गये थे न आए थे, जहां थे वहां कपास की चर्चा उठी और उसी को ओटने में जुट गए। हरिभजन से जुड़ा वास्ता इनकी इस ओटन कला पर कुर्बान हो गया। कर्मभूमि के नायक को ही लीजिए, जब गृहस्थी समझ से परे हो जाती है तो संन्यास को सबसे बड़े काम के रूप में सामने रखता है। संन्यासी बनने का एलान करता है, लेकिन यहां पर नायिका के तर्क में मुंशी जी मजबूत नजर आते हैं। नायिका बोलती है, जब गृहस्थी समझ में न आए तो लोटा-डोरी उठा लेना सबसे आसान होता है।

कभी-कभी प्रेमचंद के कफन का अलाव याद आता है, जिसमें भुन रहा आलू बाप-बेटे की लालच को पराकाष्ठा पर पहुंचा देता है, न बाप को बहू की और न बेटे को पत्नी की प्रसव पीड़ा सुनाई देती है। लालच की पराकाष्ठा देखिए- औरत के मर जाने पर कफन का चंदा हाथ में आते ही उनकी नियत बदलने लगती है, हल्के से कफन की बात पर दोनों एकमत हो जाते हैं कि लाश उठते-उठते रात हो जायेगी....।

कल पढ़िए, खोखों में बसती है मयखाना नाले की जान

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